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Thursday, December 26, 2013

"थकने लगी ज़िन्दग़ी है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"थकने लगी ज़िन्दग़ी है"
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!


कहीं है ज्वार और भाटा कहीं है, 
कहीं है सुमन और काँटा कहीं है,
नफरत जमाने से होने लगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!

कहीं है अन्धेरा कहीं चाँदनी है,
कहीं शोक की धुन कहीं रागनी है,
मगर गुम हुई गीत से नगमगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!


दरिन्दों की चक्की में, घुन पिस रहे हैं,
चन्दन को बगुले भगत घिस रहे हैं,
दिलों में इबादत नही तिश्नगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!


धरा रो रही है, गगन रो रहा है,
अमन बेचकर आदमी सो रहा है,
सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!

जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!

4 comments:

  1. बहुत सटीक और यथार्थ से जुडी रचना
    बहुत सुंदर ...

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  2. मन के फ़ूल खिलें ना खिलें
    खुशियों की धूप मिले ना मिले
    चलना ही तो जीवन है
    मंज़िल की झलक मिले ना मिले

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